Sunday 22 May 2022

वंदना गुप्ता- समीक्षा- “#रोशनी_के_अंकुर”

 नए कलेंडर के साथ यदि आपके किताब की समीक्षा भी मिल जाय तो खुश होना लाज़मी हो जाता है। शुरुआत अच्छी हुई है उम्मीद है ये साल पिछले साल से बेहतर बीतेगा और समीक्षा लिखने वाले भी जागकर हमें जागरूक करेंगे

😊😊 फिलहाल इस बढ़िया शुरुआत के लिए हम Vandana Gupta दीदी के आभारी हैं😊😊
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आज का दौर लघुकथा का दौर है. पिछले कुछ समय से जिस तरह लघुकथा ने अपना स्थान साहित्य में सुरक्षित किया है, वो सराहनीय है. यूँ लघुकथा विधा से मेरा कोई नाता नहीं लेकिन जितना समझ आता है उसके अनुसार कम शब्दों में गहरी बात कह जाना, अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं. पिछले साल बुक फेयर में सविता मिश्रा ;अक्षजा' का प्रथम लघुकथा संग्रह 'रौशनी के अंकुर' उन्होंने भेंट स्वरूप दिया. पिछले कुछ महीनों से मेरे सिरहाने बना रहा. बीच बीच में कुछ लघुकथाएं पढ़ लेती थी. जो किताब सिरहाने बनी रहती है अर्थात उसने अपना स्थान बनाया हुआ है. ऐसा ही इस संग्रह के साथ हुआ. पिछले साल दो चार किताबों के अलावा किसी पर प्रतिक्रिया नहीं दे पायी. वो साल सभी के लिए संघर्षमय रहा. आज सोचा इसी संग्रह से शुरुआत की जाए.
सविता मिश्रा के पास एक सुरुचिपूर्ण भाषा तो है ही, साथ में उनकी दृष्टि भी गहन है. वो वहीँ मार करती हैं जहाँ भी कोई सामाजिक विसंगति देखती हैं. घटनाओं का कथा रूपांतरण मजबूती से प्रस्तुत करती हैं. कम शब्दों में भावनाओं का विस्तार करना आसान नहीं होता किन्तु लेखिका इस हुनर को जानती हैं. लेखिका के पास वो सूक्ष्म दृष्टि है जिसकी बिनाह पर वो सामाजिक, राजनितिक सभी तरह की समस्याओं पर चोट करती चलती हैं.
मात से शह में लड़की के दबे रूप को आधार बनाकर समाज के चेहरे को उजागर किया है वहीँ एक लड़की के स्वाभिमान को भी बनाए रखा है. आज जरूरत है स्त्री को शिक्षित बनाना, फिर उसके बाद वो स्वयं उड़ान भी भर लेगी और अपना आसमान भी पा लेगी, मानो यही कहने का लेखिका का उद्देश्य है.
इज्ज़त के माध्यम से भी लेखिका ने स्त्रियों के दोहरे व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है जहाँ अपने स्वार्थ के लिए वो किसी को भी बलि का बकरा बना सकती हैं और उसे भी अपना अहसान बता दूसरे को दबाए रखना चाहती हैं फिर इसके लिए किसी स्त्री को उम्र भर काँटों की शैया पर ही क्यों न सोना पड़े लेकिन इसी के साथ लेखिका ने बेटी के माध्यम से एक प्रश्न भी खड़ा किया है जो समाज को आइना दिखाने के लिए काफी है.
अभिलाषा के माध्यम से लेखिका ने जैसे माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा को जीवंत कर दिया. वहां पुष्प थे तो यहाँ चूड़ियाँ. हर रंग की चूड़ियों की व्यथा के माध्यम से मानो लेखिका ने प्रत्येक स्त्री के दर्द को बयां किया है.
खुलती गिरहें नामक लघुकथा सास बहु के रिश्ते में उगी कंटीली झाड़ियों से खिलखिलाते उपवन में कैसे तब्दील हो सकती हैं उस समस्या पर लेखिका ने प्रकाश डाला है.
धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर कैसे एक प्रतियोगिता सी होती है अथवा समाज में प्रतिष्ठा हेतु दिखावा किन्तु इनका औचित्य क्या जब मन में श्रद्धा ही न हो, बिन मुखौटे के लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यही कहा है.
आज के युग में माता पिता की सेवा तो दूर की बात, उनसे मिलने भी जब तक मतलब न हो, बच्चे नहीं जाते. उनकी इसी सोच पर प्रहार किया है लेखिका ने सर्वधाम लघुकथा के माध्यम से, फिर वो बेटे हों या बेटियाँ. किसी के लिए वो चारों धाम होते हैं तो किसी के लिए चारों धाम का अर्थ भिन्न होता है.
तोहफा लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने बच्चों और माता पिता के सम्बन्ध पर ही नहीं बल्कि अधूरी जानकारी के आधार पर कैसे दोनों के मध्य एक खाई खिंच जाती है, उस पर भी प्रकाश डालती है.
लेखिका ने अपने लेखन के माध्यम से रूढ़ियों, विडम्बनाओं और विसंगतियों पर बहुत ही सहजता से प्रहार किया है. कहीं भी लेखिका लाउड नहीं होतीं लेकिन अपनी बात कह जाती है, यही उनके लेखन की सफलता है. पहले संग्रह से लेखिका ने अपनी रेंज का दर्शन करा दिया है. उम्मीद है उनकी लेखनी आगे भी इसी तरह साहित्य को समृद्ध करती रहेगी...पहले संग्रह के लिए लेखिका
बधाई
की पात्र हैं .......शुभकामनाओं के साथ --वंदना गुप्ता https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ

1 comment:

कविता रावत said...

सविता मिश्रा जी का प्रथम लघुकथा संग्रह 'रौशनी के अंकुर' की सार्थक समीक्षा प्रस्तुति हेतु आपका धन्यवाद और सविता जी को पुस्तक प्रकाशन पर बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!